...

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इंसाँ के लिये रचनाकर का खत...
हें इंसाँ, क्यु भागता रहता
हरदम; तू है अपने आपसे|
क्यो अंजान रहता है तू
अपनी इंसाँनियत से|
'तेरी नियत हरदम बदलती,
मै वाकिफ़ हू'तेरी नियत से|
देखकर अंदेखा करे; तू बोलें,
आँखे भी डरती है इस पाप से|
इंसाँ में पहले इंसाँ ढुंड तू,
तुझे रब भी मिलेगा आसनी से|
© Atharva.U.A.शालिग्राम


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