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***अपने अनजाने से***
दिन-रात दिखाई देने वाले, चेहरे पहचाने से
नहीं समझ पाती क्यूँ मैं , कुछ अपने अनजाने से ।
पैदा हुए ,बड़े हुए संग संग ,फिर भी समझ ना आए,
साथ पढ़े और खेले कूदे, फिर भी मन ना भाए,
बाहर से कुछ, भीतर से कुछ, दोहरी जिनकी नीति ,
शायद दिल को समझ ना आए, दल बदली सी प्रीति।
जिन्हें प्रेम से गले लगा , रहते हम मनमाने से
समझ नहीं पाती क्यूँ मैं ,कुछ अपने अनजाने से।
दुनिया इतनी सही नहीं है ,मुझे सिखाते रहते ,
खुद के स्वार्थ के चक्कर में,मुझे पढ़ाते रहते,
सीधी मैं भी कभी नहीं थी,खुद मैंने माना था
लेकिन मन की बुरी नहीं हूं, ये भी पहचाना था।
अच्छाई को मेरी ,मुझसे ज्यादा सब जाने थे,
समझ नहीं पाती क्यों में कुछ अपने अनजाने से।
मैंने अपनी सोच समझ,सब कुछ उन पर छोड़ा था ,
शायद मेरा अपना जीवन, अर्पण कर छोड़ा था
रीति समझ दुनिया की पाऊं, इतनी तेज नहीं थी,
नीति समझ नियति की पाऊं, इतनी तेज नहीं थी,
लगी पढ़ाने दुनिया मुझको, जो उसके मन में था,
लगी बताने बात वो सारी,जो उसके मन में था,
दिल की मेरे फिकर जो करता, ऐसा कोई नहीं था,
दुख की मेरे जिकर जो करता, ऐसा कोई नहीं था,
चीख ,मौन में गई बदल सी,लगे वो अपनाने से,
नहीं समझ पाती क्यों मैं ,कुछ अपने अनजाने से।
© Rudravi
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