...

7 views

एक दिन
आज मुलाक़ात मुक्कमल हुई एक ऐसे सख्स से,
कि अनोखा सा दास्तां-ए-क़िस्सा बन गया।
मैं फितूर में था अपने इश्क़ की रूबाई में यूंकी,
कुछ सवालों का संघ,मेरी बंदगी का हिस्सा बन गया।

न ज़रूरत थी आंसुओं कि, न इल्ज़ाम था वफ़ा पे,
शब-ओ-शाम उसे यूं याद किया, कि चर्चा बन गया।
पहले नफ़रत थी गुलाब से मुझे, और फ़िर बैर था कांटों से ,
मगर इश्क़ की बुनियाद पे, शगुफ्ता गुलाब भी ख़र्चा बन गया।

रंध रहा है दिल मेरा, और बूझ गई है चिमनी ज़िन्दगी की अब,
इस अंधेरे में घुटा आशिक़ी का मलबा लबोलुआब आ जाएगा।
तुम दास्तां सुनो बैठ के उन हसीं लम्हों की एक शर्त पे युंकि,
उसका नाम मत लेना, नहीं तो बंजर जमीं पे भी सैलाब आ जाएगा।

चलते रहना है, भटकते भटकते यूहीं इन बाजारों में हमें,
आज खाली हैं हाथ, तो कल काम आ जाएगा।
निगाहों में रखते है तस्वीर उसकी, और पलकों पे बैठा के उसको,
आज नहीं तो कल नीचे उतरेगा वो, और एकरोज़ सामने सरे आम आ जाएगा।

© msr_prose/kalamsnehi