एक दिन
आज मुलाक़ात मुक्कमल हुई एक ऐसे सख्स से,
कि अनोखा सा दास्तां-ए-क़िस्सा बन गया।
मैं फितूर में था अपने इश्क़ की रूबाई में यूंकी,
कुछ सवालों का संघ,मेरी बंदगी का हिस्सा बन गया।
न ज़रूरत थी आंसुओं कि, न इल्ज़ाम था वफ़ा पे,
शब-ओ-शाम उसे यूं याद किया, कि चर्चा बन गया।
पहले नफ़रत थी गुलाब से मुझे, और फ़िर बैर था कांटों से ,
मगर...
कि अनोखा सा दास्तां-ए-क़िस्सा बन गया।
मैं फितूर में था अपने इश्क़ की रूबाई में यूंकी,
कुछ सवालों का संघ,मेरी बंदगी का हिस्सा बन गया।
न ज़रूरत थी आंसुओं कि, न इल्ज़ाम था वफ़ा पे,
शब-ओ-शाम उसे यूं याद किया, कि चर्चा बन गया।
पहले नफ़रत थी गुलाब से मुझे, और फ़िर बैर था कांटों से ,
मगर...