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"दरिद्र अंगजा हिन्दी कविता"
क्या आप हिन्दी भाषी हैं? क्या आप हिन्दी भाषी रचनाकार हैं? क्या आप हिन्दी के नवोदित कवि हैं? यदि आपका उत्तर हाँ है तो पढ़िए मेरे साथ हिन्दी भाषी एक कवि की मनोदशा के रूप में यह कविता 👇👇👇

“दरिद्र अंगजा हिंदी कविता”
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
(हिंदी दिवस पर हिन्दी की दशा और दिशा को व्यक्त करती एक विशेष गद्य कविता)

"कविता" शब्द का अर्थ,
प्रथम दृष्टि में ही जनाना लगता है।
लगता ही नहीं वही तो,
वास्तविकता भी है।
अपनी हिन्दी की कविता तो,
एक कदम बढ़कर,
दरिद्र अंगजा है।
और बेचारा हिन्दी का कवि,
असहाय दीन-हीन,
इस कविता रूपी कन्या का,
अभागा पिता है।
जिसके घर,एक से बढ़कर एक,
सुंदरता की प्रतिमूर्ति,
कविता रूपी कविताओं का अंबार है।
और जिसे तलाश है,
प्रकाशक रूपी वर की,
प्रकाशन रूपी घर की।
न जाने कितनी दहलीजों पर,
पाण्डुलिपि रूपी कुंडली लिए,
यह बूढ़ा अभागा !
इस आश में जाता है।
कि कोई सुयोग्य घर-वर मिलते ही,
ढलती यौवनता से पहले,
वह इसे विदा कर गंगा नहाए।
पर सब एक से बढ़कर एक,
भूखे,लोभी!
जिन्हें कविता रूपी कन्या के साथ,
इनकी छपाई रूपी शादी का खर्च ।
मार्केटिंग रूपी घर बसाने का अग्रिम,
एक साथ चाहिए।
सुबह से शाम तक,
बेवश बेचारा भटकता है।
और अंततः उसकी आँख का तारा,
उसकी आँखों में खटकता है।
लेकिन उच्च से निम्न,
निम्न से निम्नतर।
आखिर एक प्रकाशन रूपी घर,
प्रकाशक रूपी वर,
मिल ही गया एक दिन ।
जो झुग्गियों की सड़ांध में,
विकास का छोर था।
लेकिन हिन्दी के कवि का,
मानो प्रलयोपरान्त भोर था।
                     
आनन-फानन में बिना सोचे-विचारे,
रिश्ते के लिए हाँ कर दी।
उसे भय था तो मात्र यही,
कि कहीं कोई दूसरा,
इधर न आ जाए।
और उसकी कविता रूपी कन्या,
बिन ब्याहे विधवा बने।
आखिर बड़ी मुश्किल से,
छापाखाने रूपी बारातघर में,
उस दरिद्र अंगजा की,
शादी की रस्म पूरी हुई।
दुल्हन के वेश में,
यह कविता रूपी कन्या,
अब कविता संग्रह बनी।

किताब के ऊपर,
घूँघट रूपी आवरण पृष्ठ।
जिसके अन्दर हिंदी की कविता,
सहमी सी बैठी थी।
इसी सोच में,
कि ससुराल का परिवेश,
न जाने कैसे होगा।
पाठक रूपी रिश्तेदार,
उसे स्वीकारेंगे या नहीं।
वह सोच ही रही थी,
कि वितरक रूपी कहारों ने,
डोली को कंधों से,
जमीन पर पटक दिया।

दुल्हन को देखने की यहाँ,
भीड़ बहुत अधिक थी।
लेकिन बेशर्मों ने घर को ही,
बाजार बना दिया।
मुँह दिखाई के रूप में,
मूल्य रूपी पट्टिका को,
घुँघटरूपी आवरण पर,
चिपका दिया।
नतीजा क्या हुआ?

भोले-भाले लोग,
जो कविता रूपी दुल्हन को,
हृदय से लगाना चाहते थे,
कीमत रूपी बन्धन
तोड़ न सके।
और फिर इस तरह,
भीड़ छँटती ही गई।
गिने-चुने जो शेष थे ,
उन्हें मात्र रस्म निभानी थी।
रूप-गुण की पहिचान,
इन्हें भला खाक थी।
जो कविता रूपी कन्या (दुल्हन) के,
स्वभाव को पढ़कर,
उसको पहिचानते।
तभी अकस्मात कविता रूपी दुल्हन ने,
घूँघट की ओट से देखा।
देखा वहाँ तो पहले ही,
सौतन के रूप में,
कोई अभागन,
अपने भाग्य पर आँसूं बहाती थी।
और नई नवेली कविता रूपी दुल्हन का,
भविष्य भी यही था।

ओर हिंदी का कवि,
अब असहाय बाप,
अपनी तूलिका से।
सफ़ेद कागज रूपी गर्भ में,
एक नई कविता रूपी भ्रूण को,
जन्म देता।
और जन्म लेने से पूर्व ही,
उस भ्रूण का कत्ल करता।
क्योंकि वह जानता था,
कि इस अजन्मे भ्रूण का,
वणिक वृति बाजार में,
पहली (कविता) की तरह,
कोई मान नहीं,
कोई दाम नहीं।
क्योंकि वह गरीब की अंगजा है।

और पैसे की आड़ में,
कुरूप (फूहड़ कविता) की प्रशंसा सुनकर,
उसे ऐसे लगता है,
कि किसी ने खौलता हुआ शीशा,
उसके कान में डालकर,
उसका सम्मान किया हो।
वैसे भी सामाजिक प्रचलन में,
अब प्रकाशक रूपी वरों का,
व प्रकाशन रूपी घरों का
सम्बन्ध-रिश्ता।
गरीब कवि की अंगजा से,
सम्भव नहीं।

अब तो जाने-माने नेताओं,
धर्म-प्रचारकों या
उद्योगपतियों की,
काली-कलूटी (भद्दी-बेअर्थ)
अपँग-आँख फूटी,
कविता रूपी कन्याओं की,
ज्यादा माँग है।
क्योंकि दहेह के रूप में,
काला धन भी सफेद,
और विद्वता की श्रेणी का,
यह सबसे सस्ता स्वाँग है।

तभी तो जाने-माने प्रकाशक,
प्रकाशन रूपी महलों में,
प्रवेश के मानदण्ड,
कुछ ऐसे रखते हैं कि,
कुँवारी कौमार्यता की शर्त,
जुड़ी होती है गरीब से।
डालरों की चाह में तो,
यहाँ शीलभंग भी क्षम्य हैं।
तभी तो आयातित कारों से,
आने वाले महानुभाव,
यहाँ बेरोक-टोक आते हैं।

और हिंदी का कवि,
हिन्दी की वास्तविकता,
गरीबी की वास्तविकता
सभ्य-शालीन कविता,
उनके दरबानों के आगे
रोते-बिलखते नाक रगड़ते हैं।
या फिर वर्ण संकरता की तरह,
शब्द संकरता,
या फिर नग्नता,फूहड़ता,अश्लीलता
अपना लेते हैं।

भूपेन्द्र डोंगरियाल
(मेरे अप्रकाशित काव्य संग्रह "ऐसा क्यों होता है" से उद्धृत)


© भूपेन्द्र डोंगरियाल