...

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!...वो परदे में है मगर, दुनिया से डरी लगती है...!
दस्तूरे मोहब्बत, दस्तूरे सियासत लगती है
अब इश्क नहीं ये, दिल की सजाए लगती है

लूटने को दिल, काफिर है हजारों बुतखाने में
वो परदे में है मगर, दुनिया से डरी लगती है

मखलूके खुदा मजहब से आजाद हो ही गई
नई तहजीब है ये, नई रस्मो में जुदा लगती है

ईमां जिसमे था वो लैला का आशिक़ बन बैठा
हरम खाली रहा, मयखाने में महफिले लगती है

हमसे ना पूछ अब तो तू भी तौहीद की कसमें
इश्क़ से रौशन थी दुनिया, अब फना लगती है

—12114