...

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ख़ुशी की सरहद



मैं यहाँ जाग तो रहा हूँ, पर गर्मीं से परेशां नहीं हूँ
हाथ मैं लोहा उठाये हूँ, पर हैरान नहीं हूँ

तस्वीर से तुमने जब आवाज़ लगायी खाने की
मैंने भी तो आवाज़ लगायी अपने आने की

आज ज़रा घी कम है, रोटी सूखी है
ठन्डे खाने में भी दम है, बातें झूठी है

पानी भी जब बर्फ गला के पीते हैं
सरहद पर लड़ मरने का सपना जीते हैं

अब सरहद पर गुंजाईश है की बर्फ पड़े
कोरे कागज़ पर भी अमन के हर्फ़ पड़े

वापिस सरहद पर जब भी कोई खड़ा रहे
खुश से सोती माँ को न कोई खलल पड़े


(मेरी एक कोशिश जिस से ये रंजिशे अब ख़त्म हो जाएं...)


© सारांश