माँ जैसा प्यार (ये कविता एक दस साल के बच्चे के दृष्टिकोण से लिखी गयी है।)
मेरी माँ मुझसे प्रेम कुछ ज़्यादा ही करती हैं,
पापा मुझें बिगाड़ते है इसलिये उनसे भी वों लड़ती हैं।
पूरे दिन पूंछती है कि आज क्या मन है तुम्हारे खाने का,
फिर थाली में परस के कद्दू धोखा देती ज़माने का।
कहती है ज़िन्दगी मे दूर तक जाना पर घर से बाहर तक नही निकल पाता हूँ,
अरे माँ 5 रोटी पेट में पड़ी है अब एक ओर कैसे खा लूँ यही तुम्हें समझाता हूँ।
अरे माँ दिया ही तो बुझा था क्या ज़रुरत थी इतना ज़्यादा डरने की,
और हा बस थोडा सा पैर फ़िसला तो ख़रोच लग गई ये भी कोई वजह थी आँख में आंसू भरने की ।
वों माँ है हर बिमारी का...
पापा मुझें बिगाड़ते है इसलिये उनसे भी वों लड़ती हैं।
पूरे दिन पूंछती है कि आज क्या मन है तुम्हारे खाने का,
फिर थाली में परस के कद्दू धोखा देती ज़माने का।
कहती है ज़िन्दगी मे दूर तक जाना पर घर से बाहर तक नही निकल पाता हूँ,
अरे माँ 5 रोटी पेट में पड़ी है अब एक ओर कैसे खा लूँ यही तुम्हें समझाता हूँ।
अरे माँ दिया ही तो बुझा था क्या ज़रुरत थी इतना ज़्यादा डरने की,
और हा बस थोडा सा पैर फ़िसला तो ख़रोच लग गई ये भी कोई वजह थी आँख में आंसू भरने की ।
वों माँ है हर बिमारी का...