...

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एक क़िस्सा
चलो एक क़िस्सा ही सुनाऊँ तुम्हें मेरी ज़िंदगी के चलते दौर का।
एक सख़्श मेरा होने का दावा करता है होकर किसी और का।

काग़ज़ी दौर में मैं उसकी कल्पित कल्पनाओं में हक़दार हूँ।
उस कनिज़ कौन बताये कि मैं तो झूठे रिश्ते में भी वफ़ादार हूँ।
समेटे समुन्दर् अपनी आँखों में , परेशान करता है मुझे ये दुनिया का शोर सा।
एक सख़्श मेरा होने का दावा करता है होकर किसी और का।

उसकी गुफ़्तगू में वो मुझे प्राथमिकता पर रखता है,
पर बात जब अधिकार की आए तो मजबूरियाँ ही रखता है।
क्यों नहीं जानता की जिस रोग की मरीज़ हूँ मैं वो फिर से कुरेद रहा है,
और इस हक़ हक़ के खेल में मुझे वो फिर वहीं धकेल रहा है।
ये वही एहसास है जैसे ज़िंदगी फिर तमाचा मारे कोई ज़ोर का,
एक सख़्श मेरा होने का दावा करता है होकर किसी और का।।

कहता है तुझपे आकर दुनिया ख़त्म हो गई ,
फिर रोज़ एक नयी लड़की का जिक्र क्यूँ करता है,
या इधर या उधर फ़ैसला कोई एक करे ना,
वो ज़ालिम रोज़ नया वार क्यूँ करता है।
और वो ये बोलकर आया था मेरी ज़िंदगी में की तू आज़मा के तो देख ,
मैं वही प्रकाश हूँ जो निकले अंधेरे के बाद हुई भौंर सा।
एक सख़्श मेरा होने का दवा करता है होकर किसी और का।