...

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बचा रह गया प्रेम
आती-जाती रही
खुले द्वार से हर एक जीवनानुभूति,
हिफ़ाजत से रखा सहेजा फिर भी
मायाविनी सी अधूरा स्पर्श कर
बच कर निकलती रही
जाने क्यों कोई ठहरी ही नहीं,
कितनी बरक़तों की कोशिशें की
सुनहरी सदाओं से आरती की,
सब कुछ वक़्त के साथ
गुज़रता गया स्मृतियों से भी
न बँध कर रह सका कोई अनुभव,
बस कुछ क्षणों में जिया गया प्रेम
निर्मल जल सा बहता रहा
तन-मन में आप्लावित होता रहा,
वक़्त की आँधियों से जलता-बुझता
प्रसादवत परजीवी सा कौतुकी सा
बचा रह गया किसी कोने में प्रेम,
न कभी बदला ना कहीं खोया
बस राहतों में बासंती रूप लिए
बचा रह जाता है प्रेम अपमानित होकर भी।
--Nivedita