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आस्था
आस्था
राम कहो या बुद्ध कहो
चाहे भजो कबीर
प्राणवायु तुम्हें छोड़ जायेगा, पड़ा रहेगा शरीर।।

जिसको मानते उसको भज लो
हो थोड़े गंभीर
हर क्षण तेरा बीत रहा है, मृत्यु बड़ी समीप।।

माया-छाया छोड़ चलेगी
आगे खाली हाथ ही जाना वीर
जीवन रहते होते रिश्ते-नाते, फिर कौन लगाए तीर।।

अगला जीवन है किसने देखा
नर चाहे कोई जीव
कर्म सदा तेरा साथ निभाते, जिसने दुःख संग परिणाम में खुशियाँ दी।।

छल सकतें तुम हर किसी को
पीछा कर्म न छोड़ते वीर
कभी ढूंढ ही लेंगे वो तुमको कहीं भी, जिन्हें काट न सके शमशीर।।

आस्तिक-नास्तिक कुछ नही होते
तू वास्तविकता में जिंदगी जी
चक्कर धर्म-कर्म का बहुत ही बुरा, इस भाव से पहले जीत।।

भेदभाव बढ़ाती जाति प्रथा
सुविधानुसार जो दी
ये शासन सत्ता की सदा भूख बढ़ाती, अधिकार जो लेती छीन।।

अंतर्मन का दीप जला लो
जितनी शेष वक्त ने घड़ियां दी
परिर्वतन हमेशा अच्छा होता, कहे ये संत कबीर।।

अंधविश्वास संग कर्मकांड को छोड़कर
ईश्वर में रहो तुम लीन
सुद लेने तेरी खुद आयेंगे, तूने जिसकी आस्था में परीक्षा दी।।

परिकल्पना से जब छूट जायेगा
आनंद मिले उस तीर
आघोष में लेंगे तेरे ईश्वर तुझको, निश्चल, निर्मल, निष्कपट जो भक्ति की।।