...

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नज़र की परख़..
आपकी आंखों को समझना तो
हम अनजाने में ही शुरू कर चुके थे,
तिरछी निगाहों में छिपे गहरे मोती
पहली नज़र में ही देख चुके थे।

और राज़ कायम रखने की अदा
हां इन्हीं अदाओं के तो कायल हुए थे,
बेशक उस वक़्त टूटे हुए थे हम दोनों
तभी शायरों की महफ़िल में मिले थे,

इसी महफ़िल में आपके लफ़्ज़ों से
मेरे लफ्ज़ों के संवाद शुरू हुए थे,
इन्हीं लफ़्ज़ों की गुफ्तगू से ही तो
आपको समझने की शुरुवात किये थे।

लिखने की एक वजह मिलेगी मुझे
ये जुगलबंदी भी आपसे शुरू किए थे..


© काफ़िर आयुष्मान