...

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आफ़ताब बदल देता शायद!
इस शब-भर को ये आफ़ताब बदल देता शायद,
या फिर उसकी रौशनी में शब न दिखता शायद।

किसी शब में ज़िद्दी का ख़्याल भी होता शायद,
कभी-किसी में शब भी तवील हो सकता शायद।

ना फ़हम रखो कि इस शब के हम फ़हम दार,
जिस किसी में ये ख़्याल दिखा वो टूटता शायद।

जो भी इस आफ़ताब में शब लाना चाहता है,
हर किसी बुरी शय का पीछा ही छूटता शायद।

शब की आँखों से देखो सब के है ख़्याल 'रूह',
कुछ पल का ही ये ख़्याल फिर न होता शायद।

~ शिवम राज व्यास "रूह"

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