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रंगभूमी (प्रथम पर्व)
वीर न जन्मते केवल राजमहल में,
कुछ पलते जंगल और कुटियो में।
नगर के कोलाहल से दूर, शांत कानन में
एक युवक लगा है तन मन से कुछ पाने में ।
खुद को सिद्ध कर दिखाने में ।

ना मन में दुरविचर, ना कोई आकांक्षा
ना किसी से द्वेष, ना कोई अहंकार
नित्य कठोर परिश्रम में लगा, ताकि
प्रताप से परिचित हो सारा संसार।
यही आस मन में बांधे, कर तप
कर घोर साधना और अभ्यास
कर्ण ने किया स्वयं का विकास ।

समाज निंदा, बचपन से सही
पर किसी के विरूद्ध वाणी ना कहीं ।
माने कर्म को, जन्म से आगे
पूजे धर्म को, प्राण से आगे ।

पर सूरमा कब तक झेले, निंदा को
अब तो यौवन की आग, सताए उसे
कुछ कर दिखाने को, खुद को सिद्ध कर दिखाने को ।
खोजें अवसर हर मोड़ पर, जो मिला उसे हस्तिनापुर की रंगभूमि पर।

द्रोण से पा शिक्षा,शास्त्र और शस्त्रों की
तैयार है, पांडव और कौरव
दिखालने अपना रण कौशल।
मदमस्त चले भीम, हाथी जैसा
भूजावो में बल सौ हाथियों जैसा ।
दुर्योधन भी ना था कोई कम प्रतापी
पता चलता जब दोनों को गदा टकराती ।
देख सब राजपुत्रों की क्षमता
जनता वाह वाह पुकारती।
जिसके लिए थी सजाई रंगभूमी
उस प्रिय द्रोण शिष्य की बारी आती ।

To be continued......