...

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मैं
मैं सोचता हु फिर से वही बातें हो हमारे और तुम्हारे दरमियाँ
तुम्हारे फोन का इंतज़ार और तुम्हारी आवाज को सुनने की बेसब्री हो फिर से
लेकिन डर लगता हैं की हमरे और तुम्हारे दरमियाँ फ़ासलें और ना बढ़ जाएं
काश तुम ना मिलते मुझे हम यूँ ही अजनबी रहते तो कितना अच्छा रहता
कितना अच्छा था वो मेरा बिता हुआ कल बेफिक्र आजाद सा मैं
तो यूँ तुम्हारे यादों मे कैद सा ना होता यूँ भीड़ मे अकेला ना होता
अब कैसे जाहिर करूँ तुमसे ये इश्क हैं अगर जाहिर कर भी दु तो क्या तुम इसे मंजूरी दोगे
मैं सोचता हूँ काश वो तुमसे मुलाकात ही ना होती. .......