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समर्पण।
समर्पण।-
मैं कुछ कहूं मेरे बस में नहीं।
भीतर कहीं उजालों में पतींगों सा बलिदान दु।
यहां अपने होने का एहसास मिटाकर एक नई पहचान दु।
मैं कुछ लिखूं मेरे बस में नहीं।
शब्दों की दुनिया में उधार की रचना बोझ लगती है।
जैसे क्षितिज की दुनिया पर अरुणोदय तो नहीं संध्या वेला की ओज लगती है।
मैं कुछ समझाऊ तुम्हें मेरे बस में नहीं।
न मिटेगी तजुर्बे के रस से कागजों की प्यास कहीं!!
तुम मीटकर तो देखो अर्थों में सजकर रह जाओगे यही।
@kamal
मैं कुछ कहूं मेरे बस में नहीं।
भीतर कहीं उजालों में पतींगों सा बलिदान दु।
यहां अपने होने का एहसास मिटाकर एक नई पहचान दु।
मैं कुछ लिखूं मेरे बस में नहीं।
शब्दों की दुनिया में उधार की रचना बोझ लगती है।
जैसे क्षितिज की दुनिया पर अरुणोदय तो नहीं संध्या वेला की ओज लगती है।
मैं कुछ समझाऊ तुम्हें मेरे बस में नहीं।
न मिटेगी तजुर्बे के रस से कागजों की प्यास कहीं!!
तुम मीटकर तो देखो अर्थों में सजकर रह जाओगे यही।
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