...

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मर रहा है..
इक हमारा इक तुम्हारा हमसे जुड़ा हर वो एहसास मर रहा है ।
कल तक था जो ज़िन्दा मकां मे अपने वो भी तन्हा मर रहा है ।।

चैन से जलते देखा था हमने शमशानों मे मरकर ज़िस्मों को यहाँ ।
क्या दौर है ये दुनियाँ का, जो ज़िन्दा इंसान ज़िन्दा ही मर रहा है ।।

इक शज़र था लगा आँगन में मेरे जिस पर झूला था बचपन मेरा ।
मेरी जहान-ए-रूखसती पर मेरे बाद वो भी तड़पकर मर रहा है ।।

दम तोड़ जाते थें ये काले बादल जिन बेखौफ पहाड़ों से टकराकर ।
आज जरा तेज हवायें क्या चलीं वो भी अब टूट-टूट कर मर रहा है ।।

कर्ज की साँसें लिए ज़िन्दगी के धागों से पिरोए हर इंसान जी रहा है ।
क्या कहें किसी से कुछ वो तो ज़िन्दा है पर उसका वज़ूद मर रहा है ।।

ऐ ''अल्फाज़'' अब रहने दे कुछ कहने को थम जाने दे कलम अपनी ।
कि साँसों का यूँ शोर तू क्यों करता है तेरा भी तो ज़िस्म ये मर रहा है ।।

©AK_Alfaaz.