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लफ़्ज़ों का मरहम

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दोस्त-ओ-एहबाब, रिश्तेदार, मेरे घर वाले,
कोई पुरानी अपनों की आदत नहीं लाता
देखो तो ज़रा_ मैं मरीज़-ए-इश्क़ हूँ लोगो!
कोई भी मेरी ग़र्ज़-ए-अयादत नहीं आता

मेरे जो ज़ख़्म हैं देखा है कभी, हाँ_हाँ...वही
जिन्हें अपनों ने आजकल नासूर बना रखा है
मरहम-ए-अल्फ़ाज़ बख़्शता हूँ खुद ही ख़ुद,
कोई दिखावे को भी अब रफ़ाक़त नहीं आता

मशरूफियत, मेहनत-ओ-मशक़्क़त,
रिज़्क़-ओ-ज़रूरत में घिर गए हैं सारे
थे जो बचपन के हमनवाँ कहाँ गए _!
कभी कोई करने अब शरारत नहीं आता

मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में, पीरों पर,
हकीमों पर ख़्वार होते रहते हैं ये जो लोग_
जातें हैं सभी ख़्वाहिशात दबाए अपनी ही,
कोई भी सिर्फ ग़र्ज़-ए-इबादत नहीं जाता_!

जाम-ए-शहादत क्या है..बताऊँ "हैदर" तुम्हें
जो एक बार पी लेता है दायमी हो जाता है
घर-बार अपना छोड़ सरहद पर वो सिपाही
सिर्फ ग़र्ज़-ए-हिफ़ाज़त तो नहीं जाता____!

© Zulqar-Nain Haider Ali Khan