...

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पति की प्रेमिका को पत्र
सोचती हूँ क्या कह कर बुलाऊँ तुम्हें,
अपशब्द तो बोहोत कह लिया,
क्या अब अपना समझ ही समझाऊं तुम्हें।

मुझे रिक्त कर न जाने क्यों वह तुम्हारा हृदय भरता रहा।
कमी हुई प्रेम में मेरे कहीं, जो तुमसे उसे था मिलता रहा।
या गृहस्थी के झमेलों से ऊब वह यह करता रहा?

तुमने ही तोड़ा था घर मेरा या मैंने खुद ही तोड़ दिया,
मैं तो डूबी ऐसी घर बच्चों में कि पति से ही था मुंह मोड़ लिया।

बची रिक्तता हृदय में उसके, वह भरने तुम तक आया था।
भटका सा मन उसका ऐसा , तुमसे ही मिल पाया था।

मुझे मिला था जो मेरा था ,तुम्हें मिला जो प्रेम रहा शेष था।
हमारे सम्बन्धों में बची उसकी इक्छाओं का भेंट था।

खूब सहा होगा तुमने भी मुझसा न बनने की चेष्टा में,
मैंने भी सहा बोहोत जान तुम्हें , न जान पाने की चेष्टा में।

तुम मुझसे अधिक सुंदर, अधिक गुणवान, अधिक आकर्षक बनने की इक्षा में,
भूल बैठी होगी कहीं आकर मेरी ही गलियों में।
खो चुकी थी मैं जो योवन, बीतती उम्र के साथ देह अपना,
ढूंढने थी निकली तुम्हारी गलियों में।

जी भर कर कोसा इकदूजे को हमने,
मरने की दुआएं भी थी दे डाली।
तुम थी न प्रेम में पूरी,
मैं तो हुई थी पूरी खाली।

मध्य हमारे अनंत घृणा का अटूट रिश्ता था,
मेरे अतीत और न वर्तमान का बचा उसके हृदय में कोई हिस्सा था।

कहाँ से लाती मैं वो यौवन जो था मेरा बीत गया।
गृहस्थी के बोझ तले मेरा तो जीवन था डूब गया।

वर्तमान तो तुम थी उनका यौवन का उन्माद लिए,
प्रेम से भरपूर मन तुम्हारा, डूबा था ना किसी के बोझ तले।

था तुम्हारे पास समर्पण अथाह अपने देह का,
आकर्षण से भरपूर तुम यौवन का अभिमान लिए।
भूल चुकी खुद को मैं , आज खड़ी थी चुनोतियों का भंडार लिए।

सौंप दिया था अपना भविष्य एक पुरूष के हाथों हमने,
अतीत का पन्ना थोड़ा मेरा ,वर्तमान तुम्हारा देखा होता मैंने।
घृणा द्वेष के साथ दर्द फिर बांटा होता हमने।


Glory❤️