ख्वाइशों के शहर में ये सन्नाटा कैसा है..?
ख्वाइशों के शहर में ये सन्नाटा कैसा है ..?
लगता है उम्मीदों ने चोट खाई है शायद ।
परिंदे का यूं पंख समेट कर बैठना कैसा है..?
लगता है आसमान से नाराजगी हुई है शायद ।
यूं खुद ही रूठकर तेरा खुद ही मान जाना कैसा है..?
लगता है फिर दुनियां से कोई खता हुई है शायद ।
इतनी भीड़ में भी तेरा खुद को यूं तनहा...
लगता है उम्मीदों ने चोट खाई है शायद ।
परिंदे का यूं पंख समेट कर बैठना कैसा है..?
लगता है आसमान से नाराजगी हुई है शायद ।
यूं खुद ही रूठकर तेरा खुद ही मान जाना कैसा है..?
लगता है फिर दुनियां से कोई खता हुई है शायद ।
इतनी भीड़ में भी तेरा खुद को यूं तनहा...