जमाना-ए-आजकल
जब कण-कण में बसा तू शंकर है
फिर क्यों तेरी ये दुनिया, इतनी भयंकर है
जब भी घर से निकले कोई, क्यों उसपर छाया डर का घोर बवंडर है
क्यों सत्य सहमकर इस जग में, बैठा घर के अंदर है
जब कण-कण में बसा तू शंकर है
फिर क्यों तेरी ये दुनिया ......
जब मुक्त गगन में चलने पर, माँ बहने अपनी डरती हो
ऑफिस से कुछ दूर निकलने पर, घर पर कॉल वो करती हो
जब दहेज लोभियों के कारण, वो अपने ही घर में आहें भरती हो
तब इस जग के हर व्यक्ति का अभिमान स्वयं मर जाता है
जो देख रहे होते इसको, क्यों उनका विवेक हर जाता है
तब इस जग के हर व्यक्ति का...........
ये तेरे खिलौने तुच्छ मुद्द्दो पर, क्यों आपस में यूँ लड़ते हैं
मजहब के अलग होते ही ये, इंसानियत भूल क्यों पड़ते हैं
क्या प्रथम खिलौने को अपने, तूने ही ये शिक्षा दी
या किसी पैगम्बर ने आकर, धरती पर इसकी दीक्षा दी
ग़र ऐसा नहीं है, तो क्यूँ इंसान मजहबों पर बँट रहा है भाइयों को अपने काटकर, स्वयं भी खुद कट रहा है
अब अवतरित होकर तू स्वयं, क्यों नहीं इनको समझाता है
मजहब के अलग होने से, इंसानियत को नहीं मारा जाता है
मजहब के ..................
जहाँ सरयू के तट पर कभी,मर्यादा पुरुषोत्तम क्रंदन करते थे
अवतरित होकर विष्णु भी जहाँ, धरती को चंदन करते थे वही आज भी धरती है और आज वही जनमानस है
बस विवेक मर चुका है सबका, अब बचा ना उतना साहस है
धरती पड़ी है वीरान यहाँ, झुका हुआ अब अंबर है
जब कण-कण में बता तू शंकर है
फिर क्यों तेरी..........
क्यों चंद लोगों के कारण,यूँ हथियार उठा सब लेते हैं
क्यों अहिंसा को मानने का, तब ज्ञान हमें ये देते हैं आजादी के संघर्षों में एक वर्ग का ही प्रतिभाग नहीं था ऐसा कोई था ही नहीं, जिसमे ममता का बाग नहीं था फिर क्या अस्फाकउल्ला खां,क्या भगत सिंह का होना सबके...
फिर क्यों तेरी ये दुनिया, इतनी भयंकर है
जब भी घर से निकले कोई, क्यों उसपर छाया डर का घोर बवंडर है
क्यों सत्य सहमकर इस जग में, बैठा घर के अंदर है
जब कण-कण में बसा तू शंकर है
फिर क्यों तेरी ये दुनिया ......
जब मुक्त गगन में चलने पर, माँ बहने अपनी डरती हो
ऑफिस से कुछ दूर निकलने पर, घर पर कॉल वो करती हो
जब दहेज लोभियों के कारण, वो अपने ही घर में आहें भरती हो
तब इस जग के हर व्यक्ति का अभिमान स्वयं मर जाता है
जो देख रहे होते इसको, क्यों उनका विवेक हर जाता है
तब इस जग के हर व्यक्ति का...........
ये तेरे खिलौने तुच्छ मुद्द्दो पर, क्यों आपस में यूँ लड़ते हैं
मजहब के अलग होते ही ये, इंसानियत भूल क्यों पड़ते हैं
क्या प्रथम खिलौने को अपने, तूने ही ये शिक्षा दी
या किसी पैगम्बर ने आकर, धरती पर इसकी दीक्षा दी
ग़र ऐसा नहीं है, तो क्यूँ इंसान मजहबों पर बँट रहा है भाइयों को अपने काटकर, स्वयं भी खुद कट रहा है
अब अवतरित होकर तू स्वयं, क्यों नहीं इनको समझाता है
मजहब के अलग होने से, इंसानियत को नहीं मारा जाता है
मजहब के ..................
जहाँ सरयू के तट पर कभी,मर्यादा पुरुषोत्तम क्रंदन करते थे
अवतरित होकर विष्णु भी जहाँ, धरती को चंदन करते थे वही आज भी धरती है और आज वही जनमानस है
बस विवेक मर चुका है सबका, अब बचा ना उतना साहस है
धरती पड़ी है वीरान यहाँ, झुका हुआ अब अंबर है
जब कण-कण में बता तू शंकर है
फिर क्यों तेरी..........
क्यों चंद लोगों के कारण,यूँ हथियार उठा सब लेते हैं
क्यों अहिंसा को मानने का, तब ज्ञान हमें ये देते हैं आजादी के संघर्षों में एक वर्ग का ही प्रतिभाग नहीं था ऐसा कोई था ही नहीं, जिसमे ममता का बाग नहीं था फिर क्या अस्फाकउल्ला खां,क्या भगत सिंह का होना सबके...