...

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स्वप्नलोक
मैंनें कुछ ऐसा स्वप्न आज निशा में देखा है
हर कृत्य में उस स्वप्न के, तुम्हारी ही रूपरेखा है
ग़र वो सब सत्य में घटित हो जाता जीवन में
संपूर्ण बसंत आजाता यूँ ही, मन रूपी इस उपवन में
जितना ही सोचता हूँ कि संपूर्ण इच्छाएं,क्रियाएं सती होजाए
जब-जब दिख जाए चित्र तेरा,मेरे मन की न जाने क्यों दुर्गति होजाए
स्वप्न में भी तुम ऐसे ही एक तेज गुलाबी आभा से युक्त थी
जैसा मैं चाहता हूँ, वैसे ही तुम सारे कष्टों से मुक्त थी
दुख इस बात का नहीं, कि क्यों तुम दिल तोड़कर चली गई?
बिना कारण बताए तुम क्यों मुझसे मुख मोड़कर चली गई?
और जाना ही था जीवन से मेरे,तो सर्वस्व ही लेकर जाती
क्यों मेरे अंदर तुम अपना कुछ अंश छोड़कर चली गई?
वो सुख के अप्रतिम पल मेरे पास सर्वदा न रह सके
कहना तो बहुत कुछ था पर हम कुछ भी न कह सके
इतने में पूरा मंजर ही एकाएक बदल सा गया
मुझे किसीने उस अद्वितीय निद्रा से ही जगा दिया
मैं उस सुख के सिंधु में...