...

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मज़बूरी
#मजबूरी
झूठ नहीं मजबूरी है,
तुम जानों क्या क्या ज़रूरी है;
लोग तो दिक्कार देते हैं उनको
बिना कोई सच जाने।
अब उनको कोन समझाए,
नंगे बदन की भी अपनी धुरी है।
कभी देखा है खुद को किसी जनाजे में,
कभी सोचा है क्या क्या होगा उस साजे में,
अपना हाल बिगड़ता देखना भी जरूरी है,
सपनो में खुद को मरता देखना भी जरूरी है।
तुम भी तो जानो क्या दर्द होता है गरीबों को,
दामन डकाए हुए उन छोटे छोटे फूलों को,
जब नोचा जाता हैं उनको भी ,
किस्मत समझकर खुद को समझाते हैं,
रो पड़ती है रूह भी उनकी,
बिन बात के जो हवस का शिकार बन जाते है।
पर लगता है उनको चुप रहना उनकी मजबूरी है,
नई सोच लाना अब उनमें भी बहुत जरूरी है ,
सोच लो किसी की इज्ज़त पर निगाह डालने से पहले,
नंगे बदन की भी अपनी धुरी है,
तुम क्या जानो हवस के पुजारी ,
एक स्त्री के लिए क्या क्या ज़रूरी है।