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ये सितम भी खूब है
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बेहिसाब जुल्म तो क्या अब ये सितम भी खूब है
काश होता हमें इल्म कि वो जाहिल मेरा महबूब है
ना करते कभी रंजिश, शिकवा और ना कोई शिकायत
मंजूर होता हमें हर परदा और उनकी बेबुनियाद हिदायत
जिस्म से नहीं, अगर होता उन्हें इश्क़ कभी रूह से मेरे
तो हम बेख़ौफ़ हो कह देते कि आज भी हम हैं सिर्फ तेरे
बेशक उन्होंने सोचा, ये सब करना आखिर उनका हक है
पर हमें उनके जालिम तो क्या इंसान होने पर भी शक है
लांघ कर अपनी दहलीज वो अब हमें तमीज सिखाते हैं
खुद काला दिल लेकर अक्सर गली में वो इत्र महकाते हैं
ज़मीर जिनके बिके हुए हैं वो क्या देंगे मेरे दागों का हिसाब
हम तो पैदा ही हुए हैं बेपर्दा तो वहीं पहनें अब अपना हिजाब


© Rhycha