...

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तो क्या दोषी हूँ मैं?
गर मेरी यादों में कोई पागल देर तक जागती है।
समाज का हर बन्धन दर-ओ-दीवार लाँघती है।
फ़क़त प्रेम ही समाया है जिसकी नस - नस में,
हर रिश्ता तोड़कर वो गर मुझे भगवान मानती है।
तो क्या दोषी हूँ मैं?

सामाजिक बेड़ियों को गर कोई काटना चाहती है।
गम जितने हिस्से में आए उसे बाँटना चाहती है।
कदम दर कदम पर रखी हर बाँका को पार कर,
जाति-ओ-मज़हब की खाईं को पाटना चाहती है।
तो क्या दोषी हूँ मैं?

खुले आसमां में अपने पंख फड़फड़ाना चाहती है।
गर कदमों को देहरी के उस पार बढ़ाना चाहती है।
थक गई है अकेले संस्कृति-ओ-संस्कार ढोते-ढोते,
अब मेरे कदमों से अपने कदम मिलाना चाहती है।
तो क्या दोषी हूँ मैं?

© पी के 'पागल'