तुम्हारे इन्तिज़ार में
मैंने कितने ही ख़त लिखे तुम्हें बुलाने के लिए मगर
तुम न आए
तुम्हारे इंन्तिज़ार से ही
मेरी सहर की इब्तिदा होती
दोपहर ढलती
और फिर
शाम की लाली की तरह तुमसे मिलने की मेरी ख्वाहिश भी शल हो जाती सारे अहसासात दम तोड़ चुके होते लेकिन
उम्मीद की एक नन्हीं किरन मेरी उंगली थामकर
मुझे, रात की तारीकियों से दूर, बहुत दूर .... दिन के पहले पहर की चौखट तक ले आती और फिर
मेरी नज़रें राह में बिछ जाती तुम्हारें इन्तिज़ार में ....
तुम न आए
तुम्हारे इंन्तिज़ार से ही
मेरी सहर की इब्तिदा होती
दोपहर ढलती
और फिर
शाम की लाली की तरह तुमसे मिलने की मेरी ख्वाहिश भी शल हो जाती सारे अहसासात दम तोड़ चुके होते लेकिन
उम्मीद की एक नन्हीं किरन मेरी उंगली थामकर
मुझे, रात की तारीकियों से दूर, बहुत दूर .... दिन के पहले पहर की चौखट तक ले आती और फिर
मेरी नज़रें राह में बिछ जाती तुम्हारें इन्तिज़ार में ....