...

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तो क्या करते
वो आया था हतेली पर रोशनी लेकर,
उसको अपना छप्पर ना दिखाते, तो क्या करते?
अब लगी है आग, लपटे कमाल उठती है,
हम जो उसको न बचाते, तो क्या करते?
एक हुज्जुम, जलानें वाले हाथ ढूंढता है,
हम खुद को गुनेघार ना बताते, तो क्या करते?
सुलगते धुएं मे, शायद बाकी थे कुछ निशा मेरे,
हम अब उस राख को ना बुझातेे, तो क्या करते?
सब बुझ चुका, और सब जा चुके है पंडित,
तुम खुद को तमाशा ना बनाते, तो क्या करते?
फिर लगेगी एक उम्र उस फानूस को बांधने में,
जो उसे घर का पता न बताते, तो क्या करते?
वो लौटकर आया है, रोशनी के बिना लेकिन,
अब अगर फानूस को आग ना दिखाते, तो क्या करते?
देखकर मंजर मेरे पागलपन का, वो रोया फिर बोहत,
अब उसको गले से भी ना लगाते, तो क्या करते।
उस रात जब लोगो को आया समझ की मुजरिम कौन है,
हम उसको अपना ना बताते, तो क्या करते?
© paperBoat