...

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ज़माना
क्या ज़माना आ गया है, इंसान भी शत्रु बना है,
हमारे ही घर में हमें रहना मना है,
वो काटें वन, जंगल, उनके मन में लोभ है,
उनके इस व्यवहार के कारण हमारे मन में क्षोभ है,

जब देखूं मैं घर उजड़ते हुए अपना, आंखों से नीर बहता है,
चली जाऊं दूर कहीं जहां कोई ना हो, दिल-दिमाग बस यही कहता है,

मेरी व्यथा सुनाऊं किसे, बस एक तुम ही हो बहन,
आखिर कब होगा हमारे ऊपर हो रहे अत्याचारों का दहन,

उड़ते हैं हम अंतहीन नील-गगन में, फिर भी हम आज़ाद नहीं,
ये पूरी पृथ्वी हमारी है, फिर भी हम आबाद नहीं,

नहीं समझते हैं मनुष्य ये क्योंकि अपना घर स्वयं बनाते नहीं,
रिश्ते तोड़ देते हैं ये कितनी सरलता से, रिश्ते ये निभाते नहीं,

हे भगवान! दया करो, देखो स्थिति हमारी,
दे दो सद्बुद्धि इन इंसानों को थोड़ी, बना दो इन्हें सदाचारी।

© Sahil


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