...

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मित्र-संग की यही तो बात...!
करा रहा उस मीठे अहसास का शब्दों से रास...
होता है मुझे जो-जो आभास...
लम्हे चंद होता है जब तुझ संग वास ।।
उस मीठी-प्यारी दास्तां की चलो करता हूं शुरूआत...

आता जब मै तेरे पास…
होता बड़ा मित्रवत एहसास ।।
होते रोम मेरे पुनः से पुलकित…
आती जब तू मेरे संहित ।।
उम्मीद की दुर्लभ किरण है जगती…
जैसे ही तू मुझे “कैसे हो?” कहती॥
हो जाता खुशी से पुनः रुबरू...
मित्रता की ऐसी पराकाष्ठा है तू ।।
बातें तेरी ऐसी होती...
हृदय में प्रेरणा स्फुरित हैं करती ।।
हो जाता साथ का शीतल एहसास…
ऐसी है तू मित्र खास ।।
हो जाता है अपनेपन का ऐसा वास...
सबकुछ लगने लगता बकवास ।।
और जैसे ही तू लेती श्वाांस,
कहे चलो अब कल मिलते हैं...
रंग सभी मेरे मर पड़ते हैं ।।

मित्र से है वो अपनापन...
मित्र संग ही रमता मन..
मित्र बिना न जीवन में रास...
मित्र बिना है ना उल्लास...
मित्र बिना जीवन बकवास...
पर मित्र वही जिसमे ईश्वर का वास...!
हे प्रभु ! हो मुझे जन्म-जन्म तक यही अहसास...
की मेरी मित्र है मेरे साथ और उसमे है
आपका वास ।।
ऐसा हो विश्वास चाहे हो वो अंतिम श्वांस...!

नही हो रहा मुझसे वर्णन पूर्ण रूप से वो अहसास
सो हो ही क्यों?, जब नही है होता वो सिर्फ “अहसास”
वो तो होता “हृदयस्थ आभास”...
हां होती है वो हृदय की बात।।
वाह-वाह ! वह मीठा अहसास...
वाह-वाह ! वह मीठी सी याद...
अरे मित्र-संग की यही तो बात...!


© प्रशांत•§