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कब बड़े हो गए हम....
कब बड़े हो गए हम....
बस कल की ही तो बात थी, वो पहली बार चलने से, स्कूल में एडमिशन लेना, नए दोस्तों के साथ, वो हाथों में हाथ।
सफर निकल पड़ा था मंज़िल की और जाना कहाँ पता नहीं..
ना वक्त की अटकल थी और नाही डॉट का डर, बेफिक्री में जीते थे,जीते थे हर पल। चिल्लर जोड़कर बड़े सपने पा लेते थे, कभी आइस क्रीम, टॉफ़ी, और कभी चॉकलेट यही तो ज़िन्दगी थी यारों....
हर वक़्त, हर जगह, हर किसी से पैसे मिल जाते, सब बहुत प्यार करते और बहुत सारी चीज़ दिलाते।दुनिया उन आँखों से परियों की कहानी से कम नहीं लगती जहाँ बस एक ख्वाहिश की देर थी। वह बचपन भी क्या खूब था, जहां बड़ी सी गलती पे भी कोई कुछ ना कहता और कहता तो दादा-दादी दौड़े चलें आते। मेरी थोड़ी सी आहट पे भी वो सब जान जाते थे।
वो बचपन, हाँ वहीं बचपन, बस वोही बचपन दुबारा जिना है, उस बचपन में ही जीना है।
जहां सपने बुलंदियां छूते थे, सपने मिनटों में बदलते थे कभी डॉ, और कभी इंजीनियर, और कभी पायलट और जाने क्या-क्या ख्वाब देखा करते थे।
आसमान मुट्ठी भर का था, और ज़मीन पर अपना ही राज था,बाइसिकल के पहिये सारी दुनिया नाप लेते थे।
वो बचपन भी क्या बचपन था जहाँ जो चाहा वो पालेते थे।
आज कोई कितनी दौलत दे, उस बचपन के आगे फीकी है..जहाँ सुबह मम्मी की गोदी में और रात लोरी में होती थी।
मानो उस ख़्वाबों वाले बुलबुले से बाहर आ गए अब हम।
जाने कब बड़े हो गए हम.....
© poemfeast
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