...

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ढल गई कैसे
दुख-दर्द की रात चिरागों-सी जल गई कैसे
सहर आ गई स्याह रात जाने ढल गई कैसे।

हमेशा गिराकर सिखाती रही मुझे जिंदगी,
नए सफर पर गिरते-गिरते संभल गई कैसे।

बेपरवाह, बेफिक्र, बेबाक सा रहा मिज़ाज,
एक ठोकर से बेफिक्र हस्तीं बदल गई कैसे।

बाहरी खूबसूरती से मोहब्बत की नज़रों ने,
किसी की सीरत देख नज़रें बहल गई कैसे।

ताउम्र खड़ी रही झूठे रिश्तों की झूठी चट्टान,
बुरे हालातों की आँच से ये पिघल गई कैसे।


© zia