...

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मेरे शहर के लोग !
ख़ुलकर जो इस समा ने, है ज़िक्र मेरा छेड़ा;
बातें बदल रहे हैं ,
मेरे शहर के लोग !

मशरूफ़ हैं वो इतने कि नजरें टिकीं हैं मुझपर ;
फ़ुर्सत में चल रहें हैं ,
मेरे शहर के लोग !

खिड़की से उठ रहा है धुआँ जो धीमें-धीमें;
कुछ-कुछ तो जल रहें हैं,
मेरे शहर के लोग !

मख़मल की राह पर भी ठोकर बचा रहें हैं ;
अब तो संभल रहें हैं ,
मेरे शहर के लोग !

लगता है चाँद की भी, अब गिर गई है किमत;
तारों को छल रहें हैं ,
मेरे शहर के लोग !


- कोमल ' विनोद '

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