...

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अभिशप्त नदी
इक निर्जला नदी
जैसे अभिशाप से बनी
मरुस्थल के बीच
सूखे रेत के टीले के मध्य अनवरत
बहती हुई
वह अश्रु जो सुखे बहते जा रहे हैं
मेरे गर्भ में
न विष
न अमृत
न ब्रह्मकमल

न स्वाति नक्षत्र में नेत्रों के सीप में
बनने वाले मोती
न कोई नमी...

कभी ऐसा हो युगों पश्चात
आकाश की आंखें डिबडिबा जाएं,
धरती की कोख में
आकाश का दर्द उमड़ आए

तब भी....तब भी...
मरूस्थल की रेत चुरा लेगी सारी नमी,
मन की भागीरथी को
कुछ आकाश भाप बनकर सुखा लेगा,
अंदर के वासुकी और जल की मछलियाँ
उम्मीद से भूखों मर जायेगी,


पीछे रहेगी केवल सुखी उदासी
और वो अभिशाप
चुपचाप.. अपने हिस्से की प्रतिक्षा लिए समाधिस्थ
अनवरत युगों तक अकेले सूखे रहने का,
सूखे बहने का,
और
रह जायेगा विलाप मेरे एकांत का.....
© Mishty_miss_tea