...

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विजय - घोष
हिसाब उसकी वफा का, कुछ ऐसा उसने लगाया,
तराजू के एक छोर पर जिस्म, एक में रूह नपाया,
इश्क़ वहां सरेआम, मांस के भाव बिक रहा था,
वहां खड़ा हर व्यक्ति, जगह से नहीं फटक रहा था,
कोई किलो, कोई पोना के मोल पर खरीद रहा था,
हर इंसा वहां हवस की बोली बोल रहा था,
बोटी बोटी, खूं का कतरा कतरा बेच डाला उसने,
उसकी आबरू तार होते देख, ज़रा भी ना रोका उसने,
ज़र्रा ज़र्रा उसकी इस हरकत पर मौन था,
सूरज भी ना धला, चन्द्रमा भी हुआ गौण था,
लहरें स्थिर हो किसी, जंग का ऐलान कर रही थी,
किसे खबर वो क्यों किसी का इंतजार कर रही थी,
अब भी क्यों पापियों ने उसे नहीं छोड़ा था,
मोहब्बत के नाम पर, बनाया उसको खिलौना था,
अब चीख पुकार भी वो, चुपके पी गई,
कलयुग में, महाभारत का आगाज़ कर गई,
हर कोई उसके मखौल का दोषी था,
प्रकृति की गोद का कोई ना निर्दोषी था,
वायरस का बहाना तो, उनका संतोष था,
उनके कृत्यों के लिए, ये उसका विजयघोष था।