...

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किस में था !
किस की चाह थी मुझे मैं किस के असर में था
मैं जब से चल दिया घर से फ़क़त सफ़र में था

हर दफ़ा ख़्वाब टूटे ख़्वाब देखना पर न छोड़ा
यही थी मेरी क़िस्मत तो क्या फिर मफ़र में था

नादाँ सी कुछ उम्मीदें मेरे बर्बाद हुए घर में थी
दरीचे में जलता इक चराग भरी दोपहर में था

तेरे लिए दिल में शाम तो रही मुंतज़िर लेकिन
आँसुओं का खारा समंदर उजड़ी नज़र में था

अगर वो जिस राह मिलेगा वहीं मर मिटूंगा मैं
ज़िंदगी का सफ़र मानो अगर और मगर में था

कब तलक मैं अपने मकाँ के दरवाज़े बंद करूँ
वहशतों का सिलसिला मेरे बाम-ओ-दर में था