कुरुक्षेत्र का गीत
जब मन में प्रश्न उठे भारी,
और आसक्ति की डोरी हो प्यारी,
संघर्ष भरी इस महागाथा में,
क्या तुम अर्जुन बन पाओगे?
दो कुलों की लहराती तलवारें,
संस्कारों की उभरती चिंगारें,
खड़े थे दो सेनाओं के बीच,
अपने ही अपनों के थे शत्रु,
क्या तुम धर्म के पक्ष में आओगे?
गांडीव हाथ से जब फिसल पड़ा,
पार्थ का मन जब डर से घिर पड़ा,
तब केशव ने समय को रोका,
और गीता का अमर ज्ञान बिखेरा।
कहते हैं वे—
"कर्तव्य से मुंह मत मोड़,
जो हो न्यायसंगत, वो युद्ध तेरा।"
अर्जुन ने रोते हुए कहा—
"कैसे लडूँ मैं सखा-संबंधों से?
रिश्तों की मिट्टी, है हाथों में मेरे,
क्या यह त्याग नहीं सर्वोत्तम मेरा?"
मुस्कुरा उठे...
और आसक्ति की डोरी हो प्यारी,
संघर्ष भरी इस महागाथा में,
क्या तुम अर्जुन बन पाओगे?
दो कुलों की लहराती तलवारें,
संस्कारों की उभरती चिंगारें,
खड़े थे दो सेनाओं के बीच,
अपने ही अपनों के थे शत्रु,
क्या तुम धर्म के पक्ष में आओगे?
गांडीव हाथ से जब फिसल पड़ा,
पार्थ का मन जब डर से घिर पड़ा,
तब केशव ने समय को रोका,
और गीता का अमर ज्ञान बिखेरा।
कहते हैं वे—
"कर्तव्य से मुंह मत मोड़,
जो हो न्यायसंगत, वो युद्ध तेरा।"
अर्जुन ने रोते हुए कहा—
"कैसे लडूँ मैं सखा-संबंधों से?
रिश्तों की मिट्टी, है हाथों में मेरे,
क्या यह त्याग नहीं सर्वोत्तम मेरा?"
मुस्कुरा उठे...