...

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माघी धूप तरूणाई लिए
तू गुड़ मीठा मीठा
मैं तिल गर्मी लिए
तेरे और मेरे मिलने से
लड्डू मकर संक्रांति
के हो लिए।।

तू डोर चंचल चंचल
मैं पतंग रंगीले रंग का
तेरी आदत कभी ढील की
कभी कस-कस पेंच खींचने की
दूर जाकर समझ आया‌
मैं राही तेरे इशारों का।।

तू ही डग्गा , तू ही तिहली
मैं ढोल कसी चमड़ी वाला
तेरे हाथों के जादू से आवाज
निकलती दे ताला दे ताला।।

तू ही भांगड़ा तू‌ ही घूमर
तू ही जीवन सुर-संगीत लिए
तेरे शब्दों में ‌वह ऊर्जा
जैसे माघी धूप तरूणाई लिए।।



© Mohan sardarshahari