नभ में जैसे उड़ते बादल
मैं निशान्त यह कविता आप सबके बीच रख रहा हूँ। कविता का शीर्षक है नभ में जैसे उड़ते बादल। कविता इस तरह है।
नभ में जैसे उड़ते बादल
कभी रूई सा तो कभी काजल।
उनका! यह उड़ना कैसा।
मोह प्रसिद्धि का जैसा।
अपने ही कर्मों से वंचित
पीछे के पापों से संचित
ले देकर मैं शब्दों में उलझ
अभी तो यौवन भी नही सुलझ।
यहां भटक दर्शन डगरों पर
वहां दौड़ कर महानगरों में
जाना नाम, बड़े वे लोग,
देश काल को कर दृष्टांत
भटक रहें बन भाव की छांव
बड़े बड़े विद्याधर बीच-
बना समय के पाल की नाव।
होकर विस्मित मैं भी उमड़ा
उचित कर्म में और भी पिछड़ा
किसी तरह कुछ नाम हो जाये
भाग जीवन से कुछ तो पाये
लेकिन समय बलवान हुआ
धीरे-धीरे...
नभ में जैसे उड़ते बादल
कभी रूई सा तो कभी काजल।
उनका! यह उड़ना कैसा।
मोह प्रसिद्धि का जैसा।
अपने ही कर्मों से वंचित
पीछे के पापों से संचित
ले देकर मैं शब्दों में उलझ
अभी तो यौवन भी नही सुलझ।
यहां भटक दर्शन डगरों पर
वहां दौड़ कर महानगरों में
जाना नाम, बड़े वे लोग,
देश काल को कर दृष्टांत
भटक रहें बन भाव की छांव
बड़े बड़े विद्याधर बीच-
बना समय के पाल की नाव।
होकर विस्मित मैं भी उमड़ा
उचित कर्म में और भी पिछड़ा
किसी तरह कुछ नाम हो जाये
भाग जीवन से कुछ तो पाये
लेकिन समय बलवान हुआ
धीरे-धीरे...