...

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ढ़लती शाम
तुम्हारे जीने की ख्वाहिश मरने में बदल गयी
तेरे दिन का उजाला,शाम में ढ़ल गयी।
तेरे चेहरे की ओज को शरद निगल गयी।
तेरी खुशी कितनी भी हो,मैयत निकल गयी।
रात्रि प्रहरी की आंखें टकाटक निहारती रह गयी।
बन्दिगृह तो जैसा था वैसा ही है, फर्क इतना सा है,काया बची और आत्मा निकल गयी।
स्व रचित--अभिमन्यु

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