ज़हर
ख्यालों में पुलाव खाते हो, और तंज़ मुझपे कसते हो।
अपने ज़हर को सम्भाल के रखो कहीं और काम आयेगा,बार बार क्यो हमें ही डसते हो।
अब तो कयी अरशे हुए,उन यादों के जनाजा निकले ऐ मेरे हमसफ़र।
मैं कोई हीरा नहीं, इंशान हूं तुम हमें ही बार-बार क्यों घसते हो।
स्व रचित--अभिमन्यु
अपने ज़हर को सम्भाल के रखो कहीं और काम आयेगा,बार बार क्यो हमें ही डसते हो।
अब तो कयी अरशे हुए,उन यादों के जनाजा निकले ऐ मेरे हमसफ़र।
मैं कोई हीरा नहीं, इंशान हूं तुम हमें ही बार-बार क्यों घसते हो।
स्व रचित--अभिमन्यु