...

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द्रौपदी .....
अस्तित्व मेरा भी था ,
नारीहोने का सम्मान मेरा भी था .....
फिर क्यों बाँट दी गई मैं ,
पाँच पतियों के बीच ...
क्या मेरा स्वाभिमान नही था ... ?

थे तुम .... सखा मेरे ,
थे तुम इस जगत के खेव्या ....
कैसे तुमने ....सामुहिक पत्नी के ,
फैसले को स्वीकार किया ....
क्यो नही तुमने विरोध ... लगातार किया ...?

बाँट दि गई मैं ...
जैसे मैं कोई सामान थी ,
किया इस तरह बँटवारा मेरे अस्तित्व का .....
जैसे मैं कोई खिलोना थी .....
है सखा ! तुम ही क्हो अब ,
क्या वाकई ... मैं ..!
दिल बहलाने की वस्तु थी ...?

फिर भी स्वीकार हर फैसला किया ,
भरोसा था अपने सखा पर .....
बँटवारे वाला ये जीवन ,
हँसते हुए स्वीकार किया .....

मेरा पति .... नही बँटवारे की ,
सौगात में मिला पति ....
कैसे धर्मराज कहलाया ...?
दाँव पर लगा दिया पत्नी को ,
क्या युधिष्ठिर का एकल मुझपर अधिकार था ....

सभाजनो के वरिष्ठो ने ,
क्यों नही उनके धर्मराज को रोका ....
क्यों दुसरे भाईयों ने विरोध ,
अपने...