मुर्दा-दिल को जिंदा-दिली करदे वो है महफिल
यक़ीनन में उस महफ़िल की ख़ूबसूरती का दीवाना हूँ,
जहा मन भी मिलता हो और विचार भी ।
लोगो का साथ होके भी कभी अकेले पड़ जाते हैं,
कभी लोगो को वक्त नही मिलता तो कभी वक्त में लोग नही मिलते।
महफ़िल ही गुमनामो को अदा किया करती हैं नाम,
वरना कुछ तो नामी को भी गुमनाम करने के लिए गढ्ढा खोदते रहते हैं।
क्या फर्क पड़ता हैं महफ़िल छोटी हो या बड़ी,
बस माहोल जिन्दा दिली का बखूबी होना चाहिए।
मुर्दा-दिल को जिन्दा- दिली करदे वो हे महफ़िल कोई पूछे तो बता देना,
वर्ना कुछ तो मुर्दा -दिली होक भी जीवन व्यतीत कर लिया करते हैं
© Ashish kumar chouksey