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मैं क्या - क्या संभालू
दिल के दर्द को संभालू,
या पिता के कर्ज को संभालू।
इश्क के मर्ज को संभालू,
या दुनियाँ की गर्द को संभालू।
जिंदगी के हर्ज को संभालू,
या मैं अपने मर्द को संभालू।
अरे अब तो बता दो कौंई ,
क्या मैं इस ज़माने के डर से ,
खुद को ही मिटा लूं।।,,,
ये कविता उन लड़को के लिए लिखी हैं मैंने जो अपनी मौज - मस्ती की उमर में अपने घर की सारी जिम्मेदारी का बोझ उठाये फिरते हैं।
जो इस अतरंगी दुनियाँ से बेखबर होकर खुद में ही मगन रहते हैं।
या पिता के कर्ज को संभालू।
इश्क के मर्ज को संभालू,
या दुनियाँ की गर्द को संभालू।
जिंदगी के हर्ज को संभालू,
या मैं अपने मर्द को संभालू।
अरे अब तो बता दो कौंई ,
क्या मैं इस ज़माने के डर से ,
खुद को ही मिटा लूं।।,,,
ये कविता उन लड़को के लिए लिखी हैं मैंने जो अपनी मौज - मस्ती की उमर में अपने घर की सारी जिम्मेदारी का बोझ उठाये फिरते हैं।
जो इस अतरंगी दुनियाँ से बेखबर होकर खुद में ही मगन रहते हैं।
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