...

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नारी
ना तुम कोने में पडी हुई, ना छुवाछुत से बंधी नारी हो...
तुम तो घराने को वंश देने वाली, पवित्र माहवारी हो...

यह लाल पेशीया, तुम्हारे जीगर को क्या तोल पायेगी...
तुम झांसी वाली मां चंडी हो, दुनिया ये ना भूल पायेगी... 

बेटो जैसा तुमने, जिम्मेदारियों को कांधे पर उठायां है...
खुद पढ़-लिखकर तुमने ही, पुरे परीवार को पढाया है...

माता पिता ने बेटी दे दी, इससे बढकर दहेज क्या है...
घर छोडा आंगन खातिर, पुछ रहे हो परहेज क्या है...

तुम हो केसरी अंबर की, रातो को निगलना जानती हो... 
घर रोशन करने खातिर, मौम सा पिघलना जानती हो... 

जिस कोख को कोसा गया, उसी में अंकूर फुलता रहा...
कोख से ही संघर्ष शुर हुआ, वो गली गली चलता रहा...

तुम ना घुंगट में ढकी हुई, ना ही बेडीयो से लिपटी हो...
पद्मिनी के जौहर से उपजी, तुम अग्नीसुता द्रौपदी हो...

जो भी खिलजी किचड भरे, अपनी अपनी आंखों में...
उखाड़ फेकों उस हर दुर्योधन की, जंघा दो फांको में...

शक्तिरुप तुम धैर्य तुमको, जहन से गीता लिखता हूँ...
स्याही कलम से ही नही, नजर से सीता लिखता हूँ...
© आशिष देशमुख