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काश
युगो से सुनते आ रहे है 'काश' की गाथा।
काश वो वहां ना जाति तो द्रौपदी को कोई छु भी ना पाता ।
काश सीता ना निकली होती कुटिया के पार तो रावण क्या उन्हे ले जा पाता ।
पर काश गौर से पढ़ी होती सबने महाभारत की गाथा
की कैसे स्त्री के अपमान मे उस युद्ध ने था सबको साधा ।
काश ये समाज रामायण से कुछ सीख पाता
की अन्धकार कभी सूरज की किरणों को घेर नहीं पाता।
पर काश ने अपना पक्ष खुद ही चुना है हर बार और लोगो की परिभाषा बदली है इस बार ।
की काश गांधारी ने अपने पुत्रो को दिये होते कुछ संस्कार।
काश धृतराष्ट्र ने दी होती उनको हर बात पर फटकार
की काश बंधे ना होते वचनों तले सारे सभागार
तो ना लगता पवित्र भूमि पर यूँ मस्तिष्क का अम्बार ।
क्यों 'काश' के बोझ तले दबे नारी हि हर बार ।
क्यों नारी हि बन जाति है हर एक अपमान का शिकार ।
ना जाने किसकी उम्मीद मे बैठ जाति है नारी हर बार
याद रखना अब कोई कृष्ण बचाने नहीं आएंगे इस बार ।
स्त्री को अब करनी होगी खुद की सुरक्षा हर बार
क्यूंकि ये दरिंदगी नही हुई है अंतिम बार।
-Unnati Jain