...

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आहट
एक आहट सी होती रही,
कभी धीरे से तो कभी ज़ोर से।
यादों को थपथपाती और पास बुलाती,
फिर सपनों की तरह गुम हो जाती।

एक मुस्कुराहट सी होती रही,
ज़िन्दगी की और से।
ना समझ पाना और ना हाथ लगाना,
आंखों ने शायद सीख लिया था बताना।

एक हिचकिचाहट सी होती रही,
विचारों की खींचती डोर से।
एक आहट सी होती रही,
गुज़रे लम्हों के दौर से...


© विवेक सुखीजा