...

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मेरी क़लम ... मेरी मोहब्बत
उस दहलीज़ से इस दहलीज़ तक
आते आते पहचान बदल जाती है!
ज़िन्दगी की इस क़िताब में रोज़
न जाने वो कितने क़िरदार निभाती है!
बाबुल के आँगन की परी थी कभी
आज वो झूठी कोई कहानी सी लगती है!
मरहम बन कर आएं रिश्तें कई...
पर, हरबार चोट भी उन्हीं से लगती है!
वक़्त की कसौटी पर है ख़्वाबों की कब्र,
ख़्वाहिशों की चिता जली सी लगती है !
फ़र्जो के संदूक में दफ़न है हर एहसास,
कभी साँसें भी यहाँ कर्ज़दार सी लगती है!
बस, मेरी क़लम मुझसे ख़ूब वफ़ा निभाती है
दरमियां हमारे रिश्ता मोहब्बत सी लगती है!