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बच्चपन
बच्चपन

वो दिन भी क्या दिन थे दोस्तो ,उन दिनो का अपना अलग ही फसाना था....
ना हसीं होंटो से छूट ती और ना बेवजह आंसुओ को बहाना था....
ना होती थी किसी से जलन किसी बात की, लड़ना जगड़ना और रूठ कर पल भर में मान जाना ना था।
खूबसूरत था वो बचपन और यादगार हमारे बचपन का ज़माना था।

ना होती कमाने की चिंता कभी, बस खेलने कूदने में मन था और पढ़ाई से दुश्मनी का नाता था....
कार्टून से फुरसत काहा मिलती थी हमें, हमें तो सिर्फ पिकनिक मनाने जाना था....
वो लुका चूपी खेलना और फैंसी ड्रेस में तो हमे बस जोकर बनकर ही जाना था।
मासूम था वो बचपन और वो मौसम पुराना था।

स्कूल से जैसे आते ही हमें तो बस दफ्तर को ठिकाने लगाना था...
वो ट्यूशनस में एक्स्ट्रा टाइम बैठना बस अगले दिन का प्लान बनाना था....
शरारती था वो बचपन और मदमस्त हमारी पढ़ाई का फसाना था।


रात को नींद आजाए इसीलिए दादी मां कहानिए सुनाते थे, पर सुबह जल्दी ना उठने पर मम्मी ज़ोर ज़ोर से चिलाते थे...
पेठ में दर्द हो रहा है ये तो स्कूल ना जाने का हमारा अल्टिमेट बहाना था।
परिवार के सात था वो बचपन और बस रूठो को मनाना था।

क्यों वक़्त वो बीत गया, क्यों आज हम सब एक दूसरे से अलग होगए....
जल्दी से बड़े होने के चक्कर में आज हमारे बचपन के सपने खोगए....
क्यों ईर्षा ही ईर्षा है हर जगह, क्यों एक दूसरे से हमको आगे निकल जाना है...
क्यों अपनों से बात करने की फुरसत नहीं है हमें,
हमे तो बस पैसे कमाने जाना है।

काश वो वक़्त वापिस आजाता, काश उन लम्हों को हम वहीं रोक लेते....
काश हम बच्चे ही रेह जाते, हमें बड़ा नहीं होना था...
ये जवानी भी क्या जवानी है दोस्तो, इसे बेहतर तो हमारा बचपन का ज़माना था।

©Manish_writes