...

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मेरी क्या औकात है
समंदर के इस पार मैं खड़ा अकेला,
उस पार सारी दुनिया साथ है,
सुबह की अब उम्मीद टूट रही है,
बहुत ही लंबी और काली रात है,
आखिर मेरी क्या औकात है!

हर बार गलती मुझसे होती है,
मुझसे ही हर दर्द की शुरुआत है,
ये महज़ एक इत्तिफाक़ तो नहीं,
इसमे कोई तो बात है,
आखिर मेरी क्या औकात है!

कुछ अच्छा किया हो जिन्दगी में,
मुझे तो ऐसा कुछ नहीं याद है,
नाकामी ही कमाई है जिन्दगी भर,
और नाकामयाबी ही मेरी जायदाद है,
आखिर मेरी क्या औकात है!

घृणा, नज़रन्दाज़्गी और अकेलापन,
इन सब हथियारों का मुझपर घात है,
विश इतना बढ़ चुका है अब,
जो कभी ना खत्म होने वाला अवसाद है,
आखिर मेरी क्या औकात है!
© Shivaay