नारी....
शब्द है छोटा और शख़्सीयत में भरी गहराई,
बंज़र ज़मीन पे बौछार सी लहराई,
कभी मुस्कुराहट, कभी आँसू,
कभी रौशनी सा पाया तुझे हरसू...
क़ुरबानी है बसी जिसके जीने में,
बड़े दर्द है छुपे उसके सीने में,
कभी चीखी, कभी चिल्लाई,
फ़िर भी ना दी किसी को सुनाई...
खिलने की चाहत लिए मासूम सी कली,
ना जाने किन हालातों में पली,
कभी ठुकराई, कभी अपनाई,
होश सँभाले तो कर दी गई पराई....
करती हर पल अपनों पे अर्पण,
ढूंढे आइने में अपना ही दर्पण,
कभी भीगी पलकें, कभी बेहता काजल,
कभी सुखा गजरा, कभी ठहरा आँचल...
जिसके दम से सृष्टि का वजूद बना है,
उसे ही यहां साँस लेना मना है,
कभी बचपन में सताई गई,
कभी घरों में जलाई गई,
कभी आँखें खुलने से पहले सुलाई गई, ...