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मिसाइलें सपने कब समझती हैं
जैसे ही कैम्प के शरणार्थियों ने एमरजेंसी सायरन की आवाज सुनी,पूरे कैम्प में पलक झपकते ही भगदड़ मच गई।हर कोई अपनी जान बचाने के लिए कैम्प से बाहर की ओर दौड़ा।जो जहां था,सब छोड़-छाड़ के भाग लिया।युद्ध के ऐसे भयानक मंजर में सामान की चिंता करने का किसी को होश कहाँ?
आठ साल की नन्ही मासूम बच्ची से माँ का हाथ कब छूटा और कब कैम्प में छूटी हुई गुड़िया को वापिस लेने काल का ग्रास बनने चली ,किसी को पता न चला।
बाहर निकलकर माँ ने पीछे मुड़कर देखा...लेकिन कैम्प जोरदार धमाके के साथ आग के गोले में आसमान को चिढ़ाने लगा।
बेबस माँ गला फाड़कर...घुटनों के बल गिरकर पेट पकड़कर इतनी जोर से दहाड़ें मारकर रोने लगी कि यदि वहां तबाही का शोर न होता तो माँ के दर्द के साथ धरती भी अपना पेट फाड़कर रोने लगती।लेकिन आज उसका करुण-क्रंदन सुनने वाला कोई न था।हर तरफ चीख-पुकार...चीत्कार.. दिशाहीन दौड़....।
हाय!!!उस मासूम को क्या पता था ...मिसाइलें खिलौनों से प्यार नहीं करतीं...
सत्ताधारियों के लिए कोमल सपने मायने नहीं रखते..उन्हें तो केवल नफरत का विस्तार करना होता है..
फिर चाहे मासूमों की लाशों से जमीन की बाउंडरी ही क्यों न बढ़ानी पड़े।

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